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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद



खन्ना ने पिता के स्नेह का भाव दिखाते हुए कहा -- बच्चों को दवाओं का आदी बना देना ठीक नहीं, और तुम्हें दवा पिलाने का मरज़ है। ज़रा कुछ हुआ और डाक्टर बुलाओ। एक रोज़ और देखो, आज तीसरा ही दिन तो है। शायद आज आप-ही-आप उतर जाय।
गोविन्दी ने आग्रह किया -- तीन दिन से नहीं उतरा। घरेलू दवाएँ करके हार गयी।
खन्ना ने पूछा -- अच्छी बात है बुला देता हूँ, किसे बुलाऊँ?
'बुला लो डाक्टर नाग को। '
'अच्छी बात है, उन्हीं को बुलाता हूँ, मगर यह समझ लो कि नाम हो जाने से ही कोई अच्छा डाक्टर नहीं हो जाता। नाग फ़ीस चाहे जितनी ले लें, उनकी दवा से किसी को अच्छा होते नहीं देखा। वह तो मरीज़ों को स्वर्ग भेजने के लिए मशहूर हैं। '
'तो जिसे चाहो बुला लो, मैंने तो नाग को इसलिए कहा था कि वह कई बार आ चुके हैं। '
'मिस मालती को क्यों न बुला लूँ? फ़ीस भी कम और बच्चों का हाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगी, कोई मर्द डाक्टर नहीं समझ सकता। '
गोविन्दी ने जलकर कहा -- मैं मिस मालती को डाक्टर नहीं समझती।
खन्ना ने भी तेज़ आँखों से देखकर कहा -- तो वह इंगलैंड घास खोदने गयी थी, और हज़ारों आदमियों को आज जीवन-दान दे रही है; यह सब कुछ नहीं है?
'होगा, मुझे उन पर भरोसा नहीं है। वह मरदों के दिल का इलाज कर लें। और किसी की दवा उनके पास नहीं है। '
बस ठन गयी। खन्ना गरजने लगे। गोविन्दी बरसने लगी। उनके बीच में मालती का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अल्टिमेटम था। खन्ना ने सारे काग़ज़ों को ज़मीन पर फेंककर कहा -- तुम्हारे साथ ज़िन्दगी तलख़ हो गयी। गोविन्दी ने नुकीले स्वर में कहा -- तो मालती से ब्याह कर लो न! अभी क्या बिगड़ा है, अगर वहाँ दाल गले।
'तुम मुझे क्या समझती हो? '
'यही कि मालती तुम-जैसों को अपना ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है, पति बनाकर नहीं। '
'तुम्हारी निगाह में मैं इतना ज़लील हूँ? '
और उन्हींने इसके विरुद्ध प्रमाण देने शुरू किया। मालती जितना उनका आदर करती है, उतना शायद ही किसी का करती हो। राय साहब और राजा साहब को मुँह तक नहीं लगाती; लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाक़ात न हो, तो शिकायत करती है ....
गोविन्दी ने इन प्रमाणों को एक फूँक में उड़ा दिया -- इसीलिए कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आँखों का अन्धा समझती है, दूसरों को इतना आसानी से बेवक़ूफ़ नहीं बना सकती।
खन्ना ने डींग मारी -- वह चाहें तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं। आज, अभी ...
मगर गोविन्दी को बिलकुल विश्वास नहीं है -- तुम सात जन्म नाक रगड़ो, तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी। तुम उसके टट्टू हो, तुम्हें घास खिलायेगी, कभी-कभी तुम्हारा मुँह सहलायेगी, तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगी; लेकिन इसलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाँठे। तुम्हारे जैसे एक हज़ार बुद्धू उसकी जेब में हैं। गोविन्दी आज बहुत बढ़ी जाती थी। मालूम होता है, आज वह उनसे लड़ने पर तैयार होकर आयी है। डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था। खन्ना अपनी योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे!
'तुम्हारे ख़याल में मैं बुद्धू और मूर्ख हूँ, तो ये हज़ारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैं? कौन राजा या ताल्लुक़ेदार है, जो मुझे दंडवत नहीं करता। सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ दिया। '
'यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूँड़ता है, उसे वह उलटे छुरे से मूँड़ती है। '
'तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करो, तुम उसकी पाँव की धूल भी नहीं हो। '
'मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गयी बीती है; क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है। '

दोनों ने अपने-अपने अग्नि-बाण छोड़ दिये। खन्ना ने गोविन्दी को चाहे दूसरी कठोर से कठोर बात कही होती, उसे इतनी बुरी न लगती; पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी। गोविन्दी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होता, वह इतने गर्म न होते; लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते। दोनों एक दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे। दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे। खन्ना की आँखें लाल हो गयीं। गोविन्दी का मुँह लाल हो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़कर ज़ोर से ऐंठे और तीन-चार तमाचे लगा दिये। गोविन्दी रोती हुई अन्दर चली गयी। ज़रा देर में डाक्टर नाग आये और सिविल सर्जन एम. टाड आये और भिषगाचार्य नीलकंठ शास्त्री आये; पर गोविन्दी बच्चे को लिये अपने कमरे में बैठी रही। किसने क्या कहा, क्या तशख़ीश की, उसे कुछ मालूम नहीं। जिस विपत्ति की कल्पना वह कर रही थी, वह आज उसके सिर पर आ गयी। खन्ना ने आज जैसे उससे नाता तोड़ लिया, जैसे उसे घर से खदेड़कर द्वार बन्द कर लिया। जो रूप का बाज़ार लगाकर बैठती है, जिसकी परछाईं भी वह अपने ऊपर पड़ने नहीं देना चाहती । वह उस पर परोक्ष रूप से शासन करे। यह न होगा। खन्ना उसके पति हैं, उन्हें उसको समझाने-बुझाने का अधिकार है, उनकी मार को भी वह शिरोधार्य कर सकती है; पर मालती का शासन! असम्भव! मगर बच्चे का ज्वर जब तक शान्त न हो जाय, वह हिल नहीं सकती। आत्माभिमान को भी कर्तव्य के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। दूसरे दिन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोविन्दी ने एक ताँगा मँगवाया और घर से निकली। जहाँ उसका इतना अनादर है, वहाँ अब वह नहीं रह सकती। आघात इतना कठोर था कि बच्चों का मोह भी टूट गया था। उनके प्रति उसका जो धर्म था, उसे वह पूरा कर चुकी है। शेष जो कुछ है, वह खन्ना का धर्म है। हाँ, गोद के बालक को वह किसी तरह नहीं छोड़ सकती। वह उसकी जान के साथ है। और इस घर से वह केवल अपने प्राण लेकर निकलेगी। और कोई चीज़ उसकी नहीं है। इन्हें यह दावा है कि वह उसका पालन करते हैं। गोविन्दी दिखा देगी कि वह उनके आश्रय से निकलकर भी ज़िन्दा रह सकती है। तीनों बच्चे उस समय खेलने गये थे। गोविन्दी का मन हुआ, एक बार उन्हें प्यार कर ले; मगर वह कहीं भागी तो नहीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम होगा, तो उसके पास आयेंगे, उसके घर में खेलेंगे। वह जब ज़रूरत समझेगी, ख़ुद बच्चों को देख आया करेगी। केवल खन्ना का आश्रय नहीं लेना चाहती। साँझ हो गयी थी। पार्क में रौनक़ थी। लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनन्द लूट रहे थे। गोविन्दी हज़रतगंज होती हुई चिड़ियाघर की तरफ़ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखायी दिये। उसे मालूम हुआ, खन्ना ने उसकी तरफ़ इशारा करके कुछ कहा और मालती मुस्करायी। नहीं, शायद यह उसका भ्रम हो। खन्ना मालती से उसकी निन्दा न करेंगे; मगर कितनी बेशर्म है। सुना है इसकी अच्छी प्रैकिटस है घर की भी सम्पन्न है फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है। न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेती; लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौन? नहीं, यह बात नहीं। पुरुषों में भी ऐसे बहुत हो गये हैं, जो उसे पाकर अपने को धन्य मानेंगे; लेकिन मालती ख़ुद किसी को पसन्द करे। और व्याह में कौन-सा सुख रखा हुआ है। बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके ग़ुलाम हैं। तब वह एक की लौंडी होकर रह जायगी। बहुत अच्छा कर रही है। अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैं। कहीं इनसे ब्याह कर ले, तो उस पर शासन करने लगें; मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगी? और समाज में दो-चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहें, तो अच्छा; पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें। आज गोविन्दी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देखकर उसकी आँखें न खुलती होंगी। विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देखकर अगर वह इस जाल में नहीं फँसती, तो क्या बुरा करती है! चिड़ियाघर में चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविन्दी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ़ चली; मगर दो ही तीन क़दम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गये। अभी थोड़ी देर पहले लान सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिरकर एक क़दम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गये। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गयी। पाँव धोकर साफ़ करने की नयी चिन्ता हुई। उसकी विचार-धारा रुक गयी। जब तक पाँव न साफ़ हो जायँ वह कुछ नहीं सोच सकती। सहसा उसे एक लम्बा पाईप घास में छिपा नज़र आया, जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जाकर पाँव धोये, चप्पल धोये, हाथ-मुँह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर पिया और पाइप के उस पार सूखी ज़मीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरन्त आ जाती है। कहीं वह वहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? ताँगेवाला तुरन्त जाकर खन्ना को ख़बर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे; लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहानेवाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंछू न हुए थे, तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था; आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलारकर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे। किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीं, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डालकर वह रो लेती; लेकिन नहीं, वह रोयेगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुखी न बनायेगी, मेरे लिए वह जो कुछ ज़्यादा से ज़्यादा कर सकती थी, वह कर गयी? मेरे कर्मो की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोये? वह अब किसी के अधीन नहीं है, वह अपने गुज़र-भर को कमा सकती है। वह कल ही गाँधी-आश्रम से चीज़ें लेकर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखाकर कहेंगे -- वह जा रही है खन्ना की बीबी; लेकिन इस शहर में रहूँ क्यों ? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिज़ाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब ख़ुद अपना पालन करूँगी। सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ़ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक़्त वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी; मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गये। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।

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